Sunday 22 September 2013

नारी के अन्दर छुपे सभी गुण और शक्तियों को चंद शब्दों में प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ ... हाँलाकि चंद पंक्तियों में इसका वर्णन संभव नहीं है किंतु फिर भी एक छोटा सा प्रयास है ये ..

....आशा .... 

मुझको भी खुद से आशा है 
मैं भी आगे बढ़ सकती हूँ 
छोटा सा एक प्रयास जो हो तो, 
नभ की उंचाई छू सकती हूँ

ये जो सामाजिक भेदभाव है 
ये मुझ पर उपहास है
मैं भी हर काम में सक्षम हूँ
मैं भी जीत की परिभाषा हूँ।

मैं मद्धम हवा सी चल सकती हूँ,
शीतल नदी सी बह सकती हूँ,
आए जो कोई विपत्ति तो
तप्त ज्वाला सी जला सकती हूँ।

मुझसे ना ऐसे भेद करो
न शिक्षा से मेरा विच्छेद करो
मैंने परिवार चलाये हैं,
देश भी मैं चला सकती हूँ।

मुझको भी खुद से आशा है
मैं भी आगे बढ़ सकती हूँ
छोटा सा एक प्रयास जो हो तो
नभ की उंचाई छू सकती हूँ।

.....सचिन्द्र कुमार

Wednesday 13 March 2013

......स्कूल का एक दिन...... 

सुबह के ८ बजे खुली नींद 
घडी देखकर ही खुद पर चिल्लाया 

आधे घंटे में होना है तैयार 
ये सोच सोच कुछ पल घबराया 

ठीक आधे घंटे में दोस्त दरवाज़े पर खड़ा था 
आधा परांठा हाथ में आधा प्लेट में पड़ा था 

जैसे तैसे घर से निकले हम
आज तो जान लगा देंगे
जैसा भी हो पर्चा  आज का ..हम चुटकी में निपटा देंगे

रास्ते में हमने इतना इतिहास दोहराया था
मानो कुछ भूल गए तो नया इतिहास बना बना देंगे

जाते ही स्कूल लगा यूँ हमको झटका
पर्चा था हिंदी का पर इतिहास का मारा था रट्टा

छुप गए जाकर साइकिल स्टैंड पर
मांग के दोस्त की कॉपी
पर समझ आ  गया था ..
इतना पढना न होगा काफी

पर फिर भी सोच लिया था दोनों ने
आज तो जान लगा देंगे
जैसा भी हो पर्चा  आज का ..हम चुटकी में निपटा देंगे

थोड़ी सी मेहनत , थोड़ी सी किस्मत
आखिर में हाँ रंग लायी
कुछ अच्छे कर्मो का ही फल होगा
जो उस दिन कलम थी चल पायी

कॉलर ताने बहार निकले
दोनों एक दूजे को ताकते हुए
मालूम था जो लिखा है अन्दर
लिखा था इधर उधर झांकते हुए

भुला दिया घर जाते हुए सब बातो को
हावी न होने दिया हमने, मस्ती पर जज्बातों को
रास्ते में वो ठेली पर से मूंगफली उठा कर भागे हम
पर चैन उतर गयी साइकिल की ..ऐसे थे अभागे हम

आज वो दिन जब याद आया तो, फिर से चेहरा खिल गया
इस बार घर की सफाई में, स्कूल का बस्ता मिल गया

....सचिन्द्र कुमार

Thursday 7 February 2013

एकतरफ़ा प्यार की छोटी सी कहानी इन पंक्तियों में पेश है...
 
तेरे मेरे दरमियाँ आशिकी कभी आई ही नहीं,

फिर भी खुदा से यारो हमको, शिकायत हाँ जरा भी नहीं।



तेरे मेरे दरमियाँ आशिकी कभी आई ही नहीं,



...
हम साथ होते हैं हर सुबह, हम साथ होते हैं हर शाम,
भले न हो अपना हाथो में हाथ, पर संग में बिताते हैं लम्हे तमाम

अब अगर कोई कह दे , तेरी आदत न रखना
अब अगर कोई कह दे , तेरी आदत न रखना



इस बात की ....गुंजाईश नहीं



तेरे मेरे दरमियाँ आशिकी कभी आई ही नहीं,
फिर  खुदा  से यारो हमको, शिकायत हाँ जरा भी नहीं।





बरसो तलक तुझसे है बाँटी खुशियाँ, सालो से हैं तेरे गम में शरीक

रहे हम हमेशा तेरे आस पास , पर आ सके हम न तेरे करीब

अब अगर तू ही कह दे, आगे भी न है मुमकिन

अब अगर तू ही कह दे, आगे भी न है मुमकिन


समझेंगे खुदा की इनायत नहीं ...



फिर खुदा से यारो हमको, शिकायत हाँ जरा भी नहीं।

तेरे मेरे दरमियाँ आशिकी कभी आई ही नहीं,



.....सचिन्द्र कुमार

पिछले दिनों मैंने कुछ हास्य कविता के रूप में लिखने की कोशिश करी थी, एक सवाल आया तब मन  में और कुछ सोचा तो जवाब भी खुद निकल आया। उसी सवाल जवाब कुछ पंक्तियाँ  हाज़िर हैं 

जाने कवी लोगो की बीवी और नेताओ से क्या जमती है

की आधे से ज्यादा हास्य कविताएं इन दोनों पर ही बनती है


थोड़ी सी नेताओ की बुराई कर डालो

कुछ कमी रह जाए तो बीवियों की आदत निचौड़ डालो

मजे दिलाओ श्रोताओ को इनके तौर तरीकों के

थोडा लगा दो तड़का पतियों के फूटे नसीबो के।

बात है सच लोगो के मन को, ऐसी ही बाते रमती है

शायद इसीलिए हास्य कविताये, इन दोनों पर ही बनती है


कोई बात नहीं है ऐसी जो इन दोनों में एक हो

बीवी एक ही काफी है ..नेता भले अनेक हो

एकलौती बीवी ही अपनी हमको, नाको चने चबवाती है

और नेताओ की टोली दोस्तों मिल के नोट लुटाती है

बात मजे की ऐसी है की यही हास्य कवियों की टोली

अपने लिए एक बीवी और कई नेताओ को चुनती है


शायद इसीलिए हास्य कविताये इन दोनों पर ही बनती है


.....सचिन्द्र कुमार