Saturday, 3 September 2011

तेरे होंठो से छूकर निकली..सुनी जो ग़ज़ल

मैं जरा सा बहक गया था..अभी गया हूँ संभल

शब् में भी आते हैं अब तो..ख्वाब अच्छे भले...

शब् में भी आते हैं अब तो..ख्वाब अच्छे भले..

सुकून सा भी मिलने लगा है दिल को आजकल..

मुझे एक गम था..उन दूरीयों का जो भी थी दरमियान

वो हंस दिए तो दायरा भी मेरा गया है बदल

मैं जरा सा बहक गया था..अभी गया हूँ संभल

उन्हें भी इश्क था हमसे बस एक हिचक सी थी..

जरा यकीन सा हुआ उनको तो... डर गया था निकल

तेरे होंठो से छूकर निकली..सुनी जो ग़ज़ल

मैं जरा सा बहक गया था..अभी गया हूँ संभल

सचिन्द्र कुमार

Friday, 15 July 2011

मेरा दोस्त और उसके मास्टर जी

बारिश का मौसम , हरी हरी घास, सुन्दर सी शाम थी..
मैं अपनी सायकल पर रविवार के दिन B.H.E.L की तरफ अपने दोस्त मनीष के घर जा रहा था .
अपने घर से मनीष के घर तक का रास्ता भी हरिद्वार की काफी ख़ूबसूरती समेटे हुए था..
घर से निकलो और थोड़ी ही दूर पर गंगा मैया की जै हो जाती थी..उसके बाद गंगा मैया और मेरी सायकल साथ साथ पूरे ४-५ मिनट तो चलती ही थी..उसके बाद नये पुल पर एक लम्बी ढलान पर ये कोशिश रहती थी कि अब ये सायकल काफी दूर तक खुद-ब-खुद ही चलती रहे.
उसके बाद थोड़ी सी रानीपुर मोड़ के चौराहे की भीड़ और उसके बाद शुरू हो जाता है B.H.E.L की सीमा और एक अलग सी नगरी शुरू होती है..साफ़ , शांत सा जीवन लेकर चलने वाली जगह....इस रास्ते पर मैंने ११ साल बिताये हैं, पर जो आज हुआ वो अलग ही था...

कुछ ऐसा जो मैं और आप सपने में भी ना माने...मैं अगर आपको ये कहूं की ऐसा हुआ तो आप कहेंगे ..अच्छा सो जाओ अभी रात बाकी है, सुबह बात करेंगे.
ऐसा ही कुछ हुआ उस दिन...सेक्टर वन के चौराहे से पहले वाले मोड़ पर बायें हाथ पर सायकल मोड़ते ही मनीष का घर नज़र आता था..और वहाँ दूर से ही मुझे मनीष और मेरे कुछ दोस्त भी दिखे
मैंने सायकल के पैडल पर जोर लगाते हुए स्पीड बढा दी..और फटाफट पंहुचा वहां जहां सब खेल रहे थे..वहाँ मनीष,गौरव ताटके , गौरव कौशिक,आशीष ,रोहित सभी थे..
सभी मस्त खेल रहे थे...पार्क के एक तरफ कुछ बड़े लोग बात कर रहे थे... पर हमें कौन सा फर्क पड़ने वाला था...तभी अचानक एक अंकल ने हमारी गेंद पर लात मारी..
मैं और गौरव(ताटके) उसी तरफ दौड़े..अंकल मानो हमसे मजे लेने के मूड में थे..हमारी २ रूपये की गेंद पर लात पर लात मारे जा रहे थे ..मैं और गौरव भी ताव में आ गए और अंकल को मजा चखाने की ठान ली..हम लोगो का मैच लगभग २-३ मिनट चला और इतने में ही अंकल ने हमें चारो खाने चित्त कर दिया..और हम थक कर वापस दोस्तों के बीच मुँह छिपाते हुए आ गए...
मैंने हलके से गौरव के कंधे पर हाथ रखते हुए पुछा..क्या यार इतने गए गुज़रे हैं क्या हम..एक ५०-५५ की उम्र का बूढा हरा गया...
गौरव बोला ..छोड़ यार मुझे पता था हम हारने वाले हैं...तुझे पता है क्या हम किसके साथ खेल रहे थे...हारना तय था.. मैंने फिर से अंकल की तरफ देखा जो शायद खेलते वक़्त ध्यान नहीं गया..
वो हमारे देश की सबसे छोटी कार बनाने वाली कंपनी का सबसे बड़ा आदमी था.. जिनका नाम रतन टाटा है..और मैं उन्हें देख कर दंग रहा गया...मैं थोड़ी देर इस बात को विश्वास के साथ गले से उतार ही रहा था कि अचानक गौरव ने एक और bouncer दिया खोपड़ी पर, वो बोला, "तुझे पता है की आज मैं जो कुछ भी पढता हूँ इन्ही की वजह से" मैं फिर से परेशान... ये क्या है..तो वो बोला हाँ यार ..बचपन में इनसे ट्यूशन पढने जाता था तो बहुत मारते थे..खाना भी नहीं खाने देते थे ..पापा को कहते थे आप भी इसे मारते रहा करो तो ही पढ़ेगा...और पिताजी इन्ही की बात मानकर मेरी पूजा कर दिया करते थे ..
पर आज काम रही है वो मार..वो बताये जा रहा था...और मैं सर खुजलाये जा रहा था...कि ये क्या बकवास कर रहा है.. थोड़ी देर बाद मैंने कहा छोड़ यार चल पानी पीते हैं थका दिया टाटा साहब ने ...मैंने टाटा जी को टाटा किया और पानी ढूँढने लगे..मुझे पानी नहीं मिला..बहुत जगह ढूँढा..गला सूखने लगा..हर नल में पानी बंद था...अचानक देखा बहुत पसीना आ रहा था..अँधेरा था चारो ओर.....सन्नाटा ..बांयी तरफ करवट ली पानी की बोतल उठाई, पानी पिया ..बुखार देखा ..१०२ था...हलकी सी हंसी आई.. सोचा ..ये क्या था...हलचल से मीनल की आँख खुली तो उसने पुछा...क्या हुआ.... मैंने कहा कुछ नहीं मैच हार गया टाटा साहब से...तो वो बोली...अच्छा, सो जाओ अभी रात बाकी है, सुबह बात करेंगे..

कैसा लगा आप लोगो ये २-३ मिनट का मैच..

Monday, 3 January 2011

नववर्ष की शुभकामनाये

कोई बताये क्या लिखें,

क्या है नया जो हम कहें।

यूँ ही ना लिख दे कुछ बेमतलब,

आप कहेंगे हम क्यूँ सहें।

यूँ तो लिखने मैं चला था कुछ हँसते खेलते पल,

थोडा लिखा तो अफ़सोस हुआ की क्यूँ बीत गए वो प्यारे पल,

सब कुछ ही तो अच्छा था हमेशा की तरह दिल के कोने में,

गुलाटियां सी मारता हुआ एक मासूम सा बच्चा था

खुश था वो नये साल को लेकर।

उत्साहित था मन में आने वाले ख्यालों को लेकर,

फिर से एक शुरुआत सी थी,

पर डर भी था की क्या होगा कल।

वो चला फिर भी एक हौसले के साथ, जो होगा देखा जायेगा

गर मेहनत रंग लायी तो परिणाम भी अच्छा ही होगा,

गुंजाइश ना थी किसी गफलत की अब के बरस,

मुकम्मल जहां के लिए ये मासूम ना जाए तरस।

किस्मत थी अच्छी जो पूरा हुआ लक्ष्य,

अब अंदाजा लगा सकता हूँ आने वाले साल का,

कौतुहल तो इस बार भी वैसा ही है,

मन में ख्याल भी वैसा ही है,

और क्या क्या हो सकता है

मन में सवाल पहले जैसा ही है।

अगले बरस फिर बताइयेगा हम क्या कहे

कुछ नया फिर से जो हम कहे

यूँ ही ना लिख दे हम कुछ बेमतलब

और आप ये कहे की ...हम क्यूँ सहे

सचिन्द्र कुमार

Thursday, 9 December 2010

ज़िन्दगी और ग़फलत

गर हमें जरा सी ग़फलत ना होती।
ये ज़िन्दगी इतनी खूबसूरत ना होती।
सच की कडवाहट का अंदाजा होता
एक अधूरी सी जीत की , कभी ख़ुशी ना होती।

गर हमें जरा सी ग़फलत ना होती
ये ज़िन्दगी इतनी खूबसूरत ना होती।

अपनी चाल चलन और सोच
हर दफ्फ़ा ना होती बेहतर
कभी खुद को भी तोला होता
कहीं किसी से कमतर
तभी समझ ये आता, क्या हो सकता था जो हुआ नहीं
अहसास ये होता, क्या पा सकते थे जो मिला नहीं...
अपने जीवन में भी, कुछ बाकी हसरत होती
गर हमें जरा सी ग़फलत ना होती...

सोच रहा हूँ क्या करें...
कितनी रखे , कितनी रहने दें ...
अब समझे, शायद ये ज़िन्दगी ही ना होती॥
गर हमें जरा सी ग़फलत ना होती...

सचिन्द्र कुमार

Friday, 28 May 2010

बहुत समय बीत गया

बहुत समय बीत गया
कलम मेरी चली नहीं...
कुछ बात तो होगी ..
जो वजह कोई मिली नहीं ..

कुछ नहीं मेरे दायरे में ऐसा
जिस पर कुछ लिख सकूँ
किसी ओर रुख किया तो
कोई राह नज़र आई नहीं

कोई कसक नहीं जो कह सकूँ
कोई दर्द नहीं जो बता सकूँ
कोई ख़ुशी होती तो बाँट लेता
पर वो भी दामन में आई नहीं

बहुत समय बीत गया
कलम मेरी चली नहीं...
कुछ बात तो होगी ..
जो वजह कोई मिली नहीं ..

Wednesday, 3 February 2010

अक्सर ऐसा क्यों होता है


अक्सर ऐसा क्यों होता है.
कभी कभी सब कुछ पैसा क्यों होता है..
दिन भर लाख हो खुशियाँ साथ मे
फिर रात मे दिल क्यों रोता है ..

क्या नहीं है पास मेरे जिसके लिए मै भाग रहा हूँ
गर मिल गया तो क्या रुक कर सांस लूँगा
एक दौड़ लगी है खुद से ये सोच बिना ही
मन क्या पाता है क्या खोता है..

अक्सर ऐसा क्यों होता है..
कभी कभी सब कुछ पैसा क्यों होता है

सपने अभी भी पास हैं मेरे ,
पर अपनों से कितना दूर हूँ मैं .
फिर भी इस झूठे मोल भाव मे
क्यों कोई सपना भारी होता है.


अक्सर ऐसा क्यों होता है
कभी कभी सब कुछ पैसा क्यों होता है.

Wednesday, 27 January 2010

कोई होता ना तो ...


इन पंक्तियों का सार है कि ...ज़िन्दगी हमेशा चलती रहती है , किसी के होने या ना होने से ये रूकती नहीं... आप किसी के साथ हो या कोई अपना छोड़ गया हो॥ समय हमें सिखा देता है कि आगे कैसे बढ़ना है.. थोडा शायराना लहजे में पढने की कोशिश करें.

कोई होता ना दिले आशियाँ मे तो क्या होता,
कोई रहता ना ख्वाबों के मकाँ मे तो क्या होता...
नहीं जी पाते हैं जुदा होकर , बात कहने की है,
नहीं जी पाते हैं जुदा होकर , बात कहने की है,

आज दिल फिर टूट जाता तो क्या होता...

ख्वाहिशें दिल की दिल मे रह जाती है,
हसरतें पूरी ना हो तो ये सताती हैं ॥
सफ़र मे हमसफ़र बन जाए कोई , ये बाते रोज़ नहीं होती,
सफ़र मे हमसफ़र बन जाए कोई , ये बाते रोज़ नहीं होती

कोई हमसफ़र बन के साथ छोड़ देता तो क्या होता।

कोई होता ना दिले आशियाँ मे तो क्या होता,
कोई रहता ना ख़्वाबों के मकाँ मे तो क्या होता.......