एक ग़ज़ल..
दिल सपने तेरे बुनता है..आखिर इसका हक बनता है..
पास नहीं है तू फिर भी ये..तेरी आवाज़े सुनता है..
दिल सपने तेरे बुनता है..आखिर इसका हक बनता है..
लोग तो और भी, पास हैं मेरे..साथ है हस्ते, साथ हैं चलते...
लेकिन तेरी बात अलग है,,लेकिन तेरी बात अलग है
औरो को ये..कहाँ चुनता है..
दिल सपने तेरे बुनता है..आखिर इसका हक बनता है..
माना ये दुनिया बड़ी हंसी है..यारो की भी कमी नहीं है..
पर फिर भी इस चकाचौंध में..पर फिर भी इस चकाचौंध में..
मेरा भला कब..मन रमता है..
दिल सपने तेरे बुनता है..आखिर इसका हक बनता है..
कौन यहाँ जो रोके मुझको..कोई नहीं जो टोके मुझको..
तुम भी मना मुझे कर नहीं सकते..तुम भी मना मुझे कर नहीं सकते..
समझाया ना..हक बनता है ...
दिल सपने तेरे बुनता है..आखिर इसका हक बनता है..
......आखिर इसका हक बनता है..
...सचिन्द्र कुमार..
Thursday, 6 October 2011
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